भारत के संसदीय लोकतंत्र में हाल ही में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का विचार फिर से उभर कर सामने आया है। 1 सितंबर 2023 को केंद्र सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति गठित की थी। इस समिति को संसद और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ आयोजित करने की संभावना पर विचार करना था। समिति ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप दी है। कैबिनेट ने उस पर अपनी सहमती भी दे दी है।
इसका उद्देश्य यह है कि लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं। इस विचार के समर्थक तर्क देते हैं कि इससे चुनावी खर्चों में कमी आएगी, सुरक्षा एजेंसियों को राहत मिलेगी, और राजनेता चुनावी प्रचार की बजाय असली काम पर ध्यान केंद्रित कर सकेंगे।
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का इतिहास
1952 और 1957 में भारत ने एक साथ चुनाव कराने का प्रयोग किया था। लेकिन जैसे-जैसे राज्यों की सरकारें अपने कार्यकाल से पहले गिरती गईं, अलग-अलग चुनावी चक्र विकसित हुए। यह प्रणाली लोकतांत्रिक प्रक्रिया की जटिलता और भारत की संघीय संरचना से मेल खाती है।
अगर किसी राज्य की सरकार का कार्यकाल बीच में समाप्त हो जाए तो क्या जनता को तब तक इंतजार करना पड़ेगा जब तक अगला लोकसभा चुनाव न हो? और अगर केंद्र सरकार अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले गिर जाती है, तो क्या राज्यों की सरकारें भी स्वतः ही भंग हो जाएंगी?
संघीय व्यवस्था और चुनाव
भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली का आधार यह है कि राज्य एवं केंद्र सरकार अपनी-अपनी विधानसभाओं के प्रति उत्तरदायी होती हैं। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ इस व्यवस्था को चुनौती देता है। अगर एक ही समय पर चुनाव कराए जाएंगे तो इससे भारत की संघीय संरचना कमजोर होगी, क्योंकि प्रत्येक राज्य के मुद्दे अलग-अलग होते हैं, और उनके चुनावी निर्णय राष्ट्रीय मुद्दों से प्रभावित हो सकते हैं।
सामूहिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत
भारतीय संविधान में सरकारें सामूहिक उत्तरदायित्व के आधार पर कार्य करती हैं। इसका मतलब है कि सरकारें संसद या राज्य विधानसभाओं के प्रति जिम्मेदार होती हैं। अगर सरकारें विश्वास मत हारती हैं, तो उन्हें इस्तीफा देना पड़ता है। यह प्रणाली सरकारों को जवाबदेह बनाती है, लेकिन अगर सभी चुनाव एक साथ हों, तो ऐसी स्थिति में सरकारें कार्यकाल पूरा करने तक टिके रह सकती हैं, भले ही उन्होंने विश्वास खो दिया हो।
राष्ट्रपति प्रणाली का प्रभाव
कई आलोचक मानते हैं कि “एक राष्ट्र, एक चुनाव” का विचार भारत में राष्ट्रपति प्रणाली की ओर बढ़ने का संकेत देता है। इसमें केंद्र को राज्यों पर अधिक नियंत्रण मिलेगा, और राष्ट्रपति शासन का उपयोग अधिक बार किया जा सकेगा। इससे भारतीय लोकतंत्र का केंद्रीकरण होगा, जो हमारी वर्तमान संघीय प्रणाली के विपरीत है।
अमेरिका में जहां राष्ट्रपति प्रणाली है, वहां भी सभी चुनाव एक साथ नहीं होते। वहां राष्ट्रपति, कांग्रेस और राज्यों के चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं। इसका कारण यह है कि संघीय व्यवस्थाओं में चुनावों का समय निश्चित नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह जनता की आवश्यकताओं और राजनीतिक घटनाओं पर निर्भर करता है।
अगर ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की योजना को लागू करना है, तो इसके लिए संविधान में बड़े बदलाव की आवश्यकता होगी। इसके अलावा, यह संसद की सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत को कमजोर कर देगा और राज्यों की स्वायत्तता को खतरे में डाल देगा।
इस संदर्भ में एक शेर बहुत सटीक बैठता है –
“ज़माने से नहीं बदले हैं, ये तौर-तरीके हुकूमत के,
जहाँ देखा गया मुनाफ़ा, वहीं इंसाफ़ बदलता है।”
यह शेर उस विडंबना को दर्शाता है कि सत्ता और व्यवस्था का स्वरूप तब बदलता है जब सत्ता में बैठे लोगों को फायदा दिखता है। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ जैसे विचारों का भी यही सार है कि एक केंद्रीयकृत व्यवस्था की ओर बढ़ने का प्रयास किया जा रहा है, जो लोकतांत्रिक और संघीय मूल्यों के विपरीत है।
भारत जैसे विविध और जटिल लोकतंत्र में चुनावों का अस्थायी स्वरूप ही हमारे संविधान और संघीय व्यवस्था की मजबूती को दर्शाता है।